Wednesday, September 7, 2011

एक ईमेल और उसका जवाब


 गत दिनों एक राष्ट्रभक्त का  ईमेल मिला, सोचता हूँ उसे आप लोंगो के साथ साझा करूँ

(१) पहले मेरा जवाब
हे राष्ट्रभक्त , माता पिता के लिए तो चिरनंत संसार से मुक्ति का लक्ष भी त्यागा जा सकता है . शत शत नमन उस वीर को जिसकी यह गाथा लिखी हुई है. लेकिन जिस तरह एक मूर्तिपूजक को, निर्गुण ब्रह्म के उपासक भक्त का मखोल उडाना शोभा नहीं देता, उसी प्रकार , आपको अहिंसावादियो की बुराई शोभा नहीं देती . लक्ष केवल एक है राष्ट्र का उत्थान . अकर्मण्यता मनुष्य की सबसे बड़ी शत्रु है, एक अहिंसक को वक्त आने पर हिंसा कर्म का अवलंबन करना पड़ सकता है, यह उसका धर्म ही होंगा की वक्त की पुकार पर अहिंसा का सहारा छोड़ कर शस्त्र उठायें . परन्तु इसका अर्थ यह नहीं हुआ की जो लोग अहिंसक है वोह कायर है. हिंसा और अहिंसा दोनों समय आने पर आलस्य का प्रतिरूप हो सकते है. हेय और त्याज्य तो आलस्य और अकर्मण्यता है,विचारधारा नहीं. यदि समय होता तो में आपको तर्कों के साथ उचित जवाब देता परन्तु इस समय बस इतना ही.
एक बार पुनः नमन देश के सपूतो को. 
आपका
नीलम
(२) उनका पत्र  
"मै अहिंसावादी नहीं हूँ" हाँ ये अलग बात है कि कभी जानबूझ कर एक चीटी भी नहीं मारा, फिर इस तरह से देखा जाय तो मै हिंसावादी भी नहीं हूँ, बात १९१४ कि है मेरी उम्र १५ साल कि है मेरा घर एक धार्मिक किन्तु छोटे सहर के अंग्रेजों कि छावनी के करीब है पिता किशान और मै आवारा (पिता कि निगाह में) बंदेमातरम, इन्कलाब जिन्दावाद, अंग्रेजो भारत छोडो के नारे लगाने वाला, रोज कही न कही भीड़ में सामिल हो कर यही करते, तबतक, जबतक गोरे अंग्रेज अफसर कि अगुआई में काले अंग्रेज हमें भगाते नहीं, एक दिन काले अंग्रेज ने "गोरे" से हमारी पहचान बता दी फिर क्या था एक गोरा अंग्रेज अफसर चार गोरे सिपाही और २० काले अंग्रेज सिपाही मेरे कर्मो की सजा मेरे परिवार को देने के लिए घर पे धावा बोल दिए घर में माँ के आलावा दो बहने भी थी एक मुझसे बड़ी १६ साल की सादी हो गई थी बिदाई नहीं हुई थी, दूसरी १३ साल की मुझसे छोटी, मुझे और मेरे पिता को मेरे आंगन में ही बांध दिया और हमें खूब मारा इतना मारा की पिता जी कब मर गए पता ही नहीं चला बस आवाज आनी बंद हो गई, गाँव के नौजवान आगे आने की कोसिस की तो काले अंग्रेजो ने डरा कर भगा दिया फिर भी कुछ नौजवान आगे आना चाहते थे लेकिन "गांधीवादियो" ने अहिंसा परमोधर्म का पाठ पढ़ा कर कायर बना दिया जुल्म की इन्तहां तो तब हुई जब हमारे सामने ही मेरी माँ और बहनों पर अंग्रेज भूखे भेड़िये की तरह टूट पड़े उस एक छण में ही "गांधीवाद" का अर्थ और परिणाम दोनों सामने था अब तो मेरे पास न मेरा गाल बचा था दूसरा थप्पड़ खाने के लिए और ना हि दूसरी माँ और बहन उन्हें लाकर देने के लिए मै "गाँधी" के आदेश का कैसे पालन करता "मरता क्या न करता" फिर क्या था माँ भारती का नारा लगाया "बंदेमातरम" और रन चंडी बिन्ध्य्वासनी का घोष इतनी जोर से किया कि रस्सियो का बंधन कब टूटे पता नहीं कोई कुछ समझ पाता उससे पहले ही मै रसोई में भागा मिटटी के तेल से भरा डब्बा और माचिस उठा कर बाहर भागा काले और गोरे सिपाही सोच रहे थे की मै जान बचाने के लिए इधर उधर भाग रहा हूँ लेकिन मेरे दिमाग ने तो रणचंडी का नाम लेते ही एक छण में सोच लिया था की आगे क्या करना है बाहर निकलते ही दरवाजे पर लगी छप्पर में आग लगा दी घर के चारो तरफ छप्पर लगी थी पसुओ को बाधने के लिए, बस मै तेल डालता गया आग ने पुरे घर को घेर लिया कोई नहीं बचा सारे के सारे २५ सिपाही काले और गोरे दोनों जल कर राख हो गए, लेकिन उस आग ने मेरे पिता, मेरी माँ, और बहनों को भी जला डाला मेरे मन कि आस्था "अहिंसावाद" और "गांधीवाद" को भी जला कर राख कर दिया अब मै अकेला नहीं था मेरे साथ सात और नौजवान हो लिए थे आपस मै परिचय बस "बंदेमातरम" था अंग्रेजो का हमला हमारे घर पांच बजे सुबह सुरु हुआ था और उपरोक्क्त सारी घटनाये आधे घंटे मे घट चुकी थी हम पागल हो चुके थे हमारे हाथो मे मिटटी के तेल के डब्बे और जलती हुई मशाले थी "बंदेमातरम" का नारा लगाते हुए छ बजते बजते हमने अंग्रेजो कि छावनी पर धावा बोल दिए अब तक हमारी संख्या पचासों के उपर पहुँच चुकी थी ज्यादातर हमारे गावं के नौजवान ही थे लगभग एक किलोमीटर के दायरे मे बसी पूरी छावनी को हमने आग के हवाले कर दिया, हमारे कुछ साथी भी अपनी जान गवा चुके थे, साम होते होते हमारे सभी साथी अलग अलग भूमिगत हो गए, पूरा गावं ख़ाली हो चूका था अंग्रेजो ने बाहर से सेनाये बुलाकर साम होने से पहले मेरे गावं पर धावा बोलकर जला डाला लेकिन तबतक इन्सान तो क्या कुत्ते भी गावं छोड़ चुके थे बस और बस मै अकेला अपनी माँ और बहन कि लाश के पास बैठ कर रो रहा था अंग्रेज फिर मेरे घर के करीब भी नहीं आये कब तक रोता ? सोचा पिता, माता और बहनों कि अस्थिया ले कर गंगा मे बहा दू पर चाह कर भी येसा कर न सका, सरीर ने साथ नहीं दिया फिर मुझे अहसास हुआ कि मेरा तो सरीर ही मेरे साथ नहीं है मै बस एक सोच हु बस एक आत्मा अपने सवालों के साथ आज भी भटक रहा हु, मेरी आत्मा ने मेरे सरीर को कब?, क्यों?, कैसे? और कहाँ छोड़ा?, मैने तो आजादी मागने कि गलती कि थी पर मेरे पिता, माँ,  और बहनों ने कौन सी गलती कि थी? मै तो "अहिंसावादी" "गाँधीवादी" था फिर ये सब मेरे साथ क्यों हुआ? गांधीजी ने तो हिंसावादी कह कर हमसे नाता ही तोड़ लिया पास ही नहीं आने देते आखिर क्यों? मैने जो भी किया अगर वो न करता तो क्या करता? अंत मे, हमारे साथ लाखो आत्माए हमारी तरह ही इन्ही सवालों के साथ भटक रही है क्युकी भारत के लाखो गावो मे लगभग येसी ही घटनाये दुहराई गई है, और अब आखिरी सवाल आपसे (जिन्दा इंसानों से) "अहिंसावाद" का शाब्दिक अर्थ और पर्यायवाची शब्द शिर्फ़ और शिर्फ़ "कायरता" होता है यदि नहीं तो बताये?                   
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ॐ बन्दे मातरंम जय हिंद

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