Thursday, May 10, 2012

विवाह क्यों?


जीवन  की सभी राहे अंत में ईश्वर या खुदा पर ही समाप्त होती है, लेकिन विवाह जीवन का एक ऐसा मोड लगता है जिसका आध्यात्मिक विकास से कोई लेना देना न हो| पर जाने क्यों अंदर से ऐसा भी  लगता रहता है की ये विकास का ही एक पड़ाव है, इसी तथ्य का विवेचन मेने इस पोस्ट में करने का प्रयास किया है| 
गौर से देखा जाय तो, कोई मूर्ति पर ध्यान लगाता है, कोई जीवन साथी पर, कोई ज्ञान पर, अंत में जब ध्यान की गहराई में मन शांत हो जाता है तो आत्मा की आवाज सुनाई देती है, और वही ईश्वर तक ले जाती है| लेकिन ध्यान लगाने के लिए जीवन साथी ही क्यों? कोई घनिष्ट मित्र क्यों नहीं?  
जीवन में जीवन साथी का वही भाग होता है जो एक ऐसे सच्चे दोस्त की तरह है जो तुम्हारे हमेशा साथ रहता हो, और जो तुम्हारी अंतरात्मा को साफ़ रख सकता हो| जीवन में  निरंतर ऐसी घटनाये होती ही रहती है जिनके चलते हमारी अंतरात्मा पर धुल/कालिख जमने लगती है, साथ ही हम अपनी ही आत्मा की आवाज़ को अनसुना  कर धीरे-२ स्वयं तो अंदर से बहरे हो जाते है और अंतरात्मा को गूंगा बना देते है| यदि हम स्वयं अंदर झाँकना बंद कर दे तो बड़े से बड़ा गुरु भी हमें ईश्वर तक नहीं पहुचा सकता| ऐसे में हमें ऐसा दोस्त चाहियें जो हमें इतना नज़दीक से जानता हो की वो हमारे अंदर झांक सकता हो , और ये काम एक जीवनसाथी के अलावा कोई नहीं कर सकता|
 दोस्त जो तुम्हारे साथ नहीं रहते धीरे-२ नए परिवेश में ढल जाते है, और परस्पर समझ धीरे-२ कम हो जाती है, परन्तु चाहे संतति के हित के लिए ही सही, विवाह के बाद साथ रहना ज़रुरी हो जाता हैं| संतान का जन्म एक प्रकृति प्रदत्त मुश्किल की घड़ी है जो शायद इसलिए बनाई ही गई है की आप एक दूसरे के बेहद करीब आ सके| साथ बिताए सुख के पल तो कुछ समय के बाद धुँधले पड़ जाते है लेकिन मुश्किल समय में दिया हुआ साथ आपको गहराई से जोड़ देता है| 
वही दूसरी तरफ से देखा जाय तो संतान  का जन्म स्वयं अपने आप में एक आध्यात्मिक घटना है, चाहे संतान का माता पिता की और प्रेम हो या माता पिता के  संतान के प्रति प्रेम और करुणा के भाव हो, ये प्रेम भाव भी तो मन/आत्मा के मेल को धोने की एक श्रेष्ठ औषधियाँ ही है| आप ईश्वर की सभी संतानों में अपनी संतान की छवि देख कर अपने समस्त बंधनों से मुक्त हो सकते है, या संसार के अन्य लोगो को माता पिता की भाँती आदर देकर परमपिता परमेश्वर को साक्षात महसूस कर सकते है| भक्ति ईश्वर को पुत्र/पुत्री , माता/पिता, या सखा/सहेली  देखकर की जा सकती है| और फिर यह सच ही है, आत्मा के रूप में ना तो इस संसार में आप ईश्वर के बाद आये है न उसके पहले, अत: यह तो आप पर निर्भर है की आप किस पर ध्यान लगाना अधिक स्वाभाविक और सहज मानते है|
कई बातें हम सब जानते है/समझते है, परन्तु उनका हमें कोई प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता, यहाँ ये भी ध्यान देने योग्य है की अंतरात्मा के पास हर सवाल का जवाब है, फिर भी हम बार बार जन्म लेते है, क्योंकि जिसे सिर्फ जानते है, अनुभव नहीं कर पाते वो कागजी ज्ञान तो समय की धारा में बह जाता है| विवाह की पौधशाला हमें जीवन के अनुभव देने के लिए है, निश्छल प्रेम में डूबे, साफ़ अंतर्मन में बोलते ईश्वर की आवाज़ सुनाने के लिए है|

कर्मफल


कई बार घर के जब बच्चे आपस में झगड़ते है, तो घर में मा बाप बड़े बच्चे को समझाते है, बेटा छोटा तो नासमझ है तू तो समझदार है, मान जा छोटे की ही बात रख ले| यही भगवान राम ने सीता माता के साथ किया था, जब नासमझ प्रजा ने अयोध्या के राजसिहासन पर ऊँगली उठाई, सब को सुखी रखने के प्रयास में सीता माता के साथ अत्याचार हो गया| यहाँ से हमें एक बात ये भी सिखाने को मिलती है की दुनिया में बुरे लोग क्यों होते है, क्योंकि अच्छे लोग ज्ञानी और अज्ञानी, योग्य और अयोग्य में अंतर नहीं करते| कोई परिस्थितिवश अज्ञानी रह जाता है तो कोई जानबूझकर आलस्य से भरकर अज्ञानता का रास्ता अपनाता है, लेकिन एक अज्ञानी यदि दुखी है है तो एक भला मनुष्य उसका भी दुःख हरने का ही प्रयास करेगा| और एक तानाशाह उससे कहेगा की तुम अपना भला बुरा समझाने के योग्य नहीं हो, और अपने से छोटे लोगो में योग्यता अनुसार भेद करेगा| यहाँ ये भी समझाना जरुरी है की कर्मफल इसलिए नहीं होता की आपने सही या गलत राह चुनी, कर्मफल इसलिए होता है की आपकी वजह से औरो के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा? आप अपनी राहें चुनने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन किसी और को चोट पहुचाने का आपको अज्ञानतावश भी कोई अधिकार नहीं है, मुक्ति तब तक नहीं मिल सकती जब तक चोट खाने वाला आपको क्षमा नहीं कर देता।
 इसका अर्थ ये हैं की अज्ञानता में किये हुए अपराध की भी सजा होती हैं| कर्मफल से तो स्वयं श्रीराम भी नहीं बच पाए थे और बाली को छुप कर मारने पर उन्हें भी कृष्ण के रूप में शिकारी के हाथो मरना पडा था| संभवतया वो १६००० स्त्रियां जिन्हें कृष्ण ने नारकासुर से मुक्त कराया था, वो श्रीराम की ही अज्ञानी प्रजा थी, असुर द्वारा अपहरण होने पर अपरहित पर ही लांछन लगाने के लिए उन्हें अगले जन्म में स्वयं अपहरण का और अपमान का अनुभव करना पड़ा. यदि राम ने सीता माता का त्याग किया तो कृष्ण ने उन १६००० से विवाह कर ये भी स्थापित करने का प्रयास किया की अपहरण के लिए स्त्री को दोष न दिया जाय| लेकिन कालान्तर में हमने कृष्ण के आदर्श को भुला कर प्राचीन परिपाटी को पुनः अपना लिया, सच भी है लोकतन्त्र के इस युग में कडुवा पीना किसे अच्छा लगता है, जो ज्यादा लोक लुभावन वादे करे वही अच्छा है, अफ़सोस न तो नेता राम है न ही प्रजा राम को राजा बनाने को तैयार है| जबतक ज्ञान का प्रकाश हर ह्रदय तक नहीं पहुच जाता हमारे आलस्य के फल के रूप में हमें तानाशाह / स्वार्थपरक नेता मिलते रहेंगे, राम राज्य के स्वप्न देखने से पहले हमें अपने आस पास की सारी प्रजा को राम राज्य के योग्य ज्ञानी बनाना होगा|