आम तौर पर मेरी रचनाये किसी ऐसी घटना से प्रेरित होती है जो मुझे लिखने पर मजबूर कर दे, रीडिफ़ पर की जा रही बकवास ने मुझे मजबूर किया था, और गणेश प्रतिमाओं के बड़ते आकार ने मुझे एक बार फिर विवश किया। यही दोनों घटनाएं इस पूरी श्रंखला का केंद्रबिंदु हैं।
भक्ति को वैसे तो कई प्रकारों में बाटा जाता है परन्तु मै स्वयं इसे ३ प्रकार की ही मानता हूँ, क्योंकि मेरा मानना है की भक्ति मै भाव ही मुख्य है बाकी सब तो गौण हैं।
(१) दास्य भाव (२) मित्र भाव (३) वात्सल्य भाव
आज मै पहले प्रकार का विवेचन करूँगा।
दास्य भाव की भक्ति सबसे ज्यादा प्रचलित है, हिन्दू धर्म मै यदि ईश्वरीय अवतार के प्रति दास्य भाव है तो मुस्लिम/ सिख/ इसाई धर्मो मै आकारहीन सर्वशक्तिमान के प्रति. परन्तु याद रहे की दास्य भाव मे प्रश्नों के लिये कोई स्थान नहीं हैं। क्योंकि इश्वर के दास का इश्वर पर कोई अधिकार तो है नहीं जो परमात्मा उसे उत्तर देता फिरे, उसे तो बस भक्ति करते जाना है, इश्वर के गुण गाना और इश्वर के अन्य सेवक मनुष्यों की सेवा करना ही उसके लिये धर्मं है। इस तरह की भक्ति अहंकार को गलाने की लिये तो उत्तम है लेकिन, विज्ञान के इस युग मे सबसे मुश्किल है, क्योंकि बचपन से ही हमें अविश्वास की घुट्टी मिलती है, और हर चीज पर प्रश्न और विचार करना हमारे स्वभाव का हिस्सा बन जाता है। बस यही से सारी समास्याए शुरू हो जाती है, धर्म विज्ञान को अंधा कहता है और विज्ञान धर्मं को। इस परस्पर टकराहट मे इश्वर से विश्वास डिगने लगता हैं क्योंकि दिखाई तो विज्ञान देता है इश्वर नहीं।
परतो के निचे जाकर धर्म और विज्ञान के एकात्म्य को देखने के लिये धर्म गुरुओ की आवशयकता है, पर अच्छे गुरु की तलाश आसान नहीं है , जो मिलते है उनमे से कुछ अपना हित साधते हैं तो कुछ विज्ञान को नजरअंदाज कर किताबी ज्ञान पर जोर देते है। गलत और आधा ज्ञान कुछ लोगो को मजहबी उन्माद की सीमा तक ले जाता है तो कुछ को नास्तिक बना देता हैं।
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